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क॒था दा॑शेम॒ नम॑सा सु॒दानू॑नेव॒या म॒रुतो॒ अच्छो॑क्तौ॒प्रश्र॑वसो म॒रुतो॒ अच्छो॑क्तौ। मा नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यो॑ रि॒षे धा॑द॒स्माकं॑ भूदुपमाति॒वनिः॑ ॥१६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

kathā dāśema namasā sudānūn evayā maruto acchoktau praśravaso maruto acchoktau | mā no hir budhnyo riṣe dhād asmākam bhūd upamātivaniḥ ||

पद पाठ

क॒था। दा॒शे॒म॒। नम॑सा। सु॒ऽदानू॑न्। ए॒व॒ऽया। म॒रुतः॑। अच्छ॑ऽउक्तौ। प्रऽश्र॑वसः। म॒रुतः॑। अच्छ॑ऽउक्तौ। मा। नः॒। अहिः॑। बु॒ध्न्यः॑। रि॒षे। धा॒त्। अ॒स्माक॑म्। भू॒त्। उ॒प॒मा॒ति॒ऽवनिः॑ ॥१६॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:16 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! (प्रश्रवसः) उत्तम श्रवण वा अन्न जिनका वे (मरुतः) मनुष्य हम लोग (एवया) गमन क्रिया से (अच्छोक्तौ) सत्य कथन में (नमसा) सत्कार वा अन्न आदि से (सुदानून्) उत्तम दानों को (कथा) कैसे (दाशेम) देवें जैसे (मरुतः) पवन (अच्छोक्तौ) उत्तम वचन में प्रवृत्त कराते हैं, वैसे (नः) हम लोगों को इस विषय में प्रवृत्त करिये। जैसे (बुध्न्यः) अन्तरिक्ष में हुआ (अहिः) मेघ (अस्माकम्) हम लोगों का (उपमातिवनिः) उपमा का विभाग करनेवाला (भूत्) हो और (रिषे) अन्न के लिये हम लोगों को (मा) नहीं (धात्) धारण करे, वैसे आप लोग भी हम लोगों को हिंसा में न प्रवृत्त कीजिये ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! आप लोग विद्वानों के प्रति प्रश्न करके कि हम लोग क्या देवें और किससे क्या ग्रहण करें, ऐसा निश्चय करके व्यवहार करो और जैसे मेघ स्वयं छिन्न-भिन्न होके अन्यों की रक्षा करता है, वैसे ही विद्वान् जन स्वयं दूसरे से अपकार किये हुये से छिन्न-भिन्न होकर भी अन्यों का सदा उपकार करते हैं ॥१६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसः ! प्रश्रवसो मरुतो वयमेवयाच्छोक्तौ नमसा सुदानून् कथा दाशेम यथा मरुतोच्छोक्तौ प्रवर्त्तयन्ति तथा नोऽस्मानत्र प्रवर्त्तयत। यथा बुध्न्योऽहिरस्माकमुपमातिवनिर्भूत् रिषेऽस्मान् मा धात्तथा यूयमप्यस्मान् हिंसायां मा प्रवर्त्तयत ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (कथा) केन प्रकारेण (दाशेम) दद्याम (नमसा) सत्कारेणान्नादिना वा (सुदानून्) उत्तमदानान् (एवया) गमनक्रियया (मरुतः) मनुष्याः (अच्छोक्तौ) सत्योक्तौ (प्रश्रवसः) प्रकृष्टं श्रवः श्रवणमन्नं वा येषान्ते (मरुतः) वायवः (अच्छोक्तौ) सम्यग्वचने (मा) निषेधे (नः) अस्मान् (अहिः) मेघः (बुध्न्यः) अन्तरिक्षे भवः (रिषे) अन्नाय (धात्) दध्यात् (अस्माकम्) (भूत्) भवेत् (उपमातिवनिः) उपमातेर्विभाजकः ॥१६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यूयं विदुषः प्रति पृष्ट्वा वयं कि दद्याम कस्मात् किं गृह्णीयामेति निश्चित्य व्यवहरत यथा मेघः स्वयं छिन्नो भिन्नो भूत्वाऽन्यान् रक्षति तथैव विद्वांसस्स्वयं पराऽपकारेण छिन्नो भिन्ना भूत्वाप्यन्यान् सदैवोपकुर्वन्ति ॥१६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोलंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही विद्वानांना प्रश्न विचारा की, आम्ही कुणाला काय द्यावे? व कुणाकडून काय घ्यावे? हा निश्चयात्मक व्यवहार जाणून घ्या. जसे मेघ स्वतः छिन्नभिन्न होऊन इतरांचे रक्षण करतात. तसेच विद्वान लोक दुसऱ्याकडून त्रास झाला तरीही इतरांवर सदैव उपकार करतात. ॥ १६ ॥